स्वतंत्र चुनाव या अनुकूलन का परिणाम!

‘फ़ेमिनिज़्म’ या ‘नारीवाद’ शब्द तो हम अक्सर सुनते हैं लेकिन इसका अर्थ कितना समझते हैं?

इसी पर एक दोस्त से बातचीत के दौरान उसने मुझसे पूछा- क्या है फ़ेमिनिज़्म? फ़ेमिनिज़्म स्त्री-पुरुष की समानता पर बल देता है, मैंने कहा। ये एक व्यक्ति के रूप में स्त्री पर सदा सर्वदा से लगे प्रतिबन्धों को तोड़ फेंकने की बात करता है क्योंकि स्त्री भी उतनी ही इन्सान है जितना कि कोई भी पुरुष। फ़ेमिनिज़्म ये सुनिश्चित करता है कि स्त्री-पुरुष रसोई से लेकर दफ़्तर तक में समान रूप से भागीदार हों, कोई एक काम किसी पर थोपा न जाए।

इस पर मेरे दोस्त ने कहा- लेकिन हम जिसको केन्द्र में रख रहे हैं यानी कि ‘स्त्री’, उसे ही क्यों न चुनने दें कि वो ख़ुद क्या चाहती है। हम एक औरत की ‘चॉइस’ को प्राथमिकता क्यों नहीं देते बजाय इसके कि उस पर ज़बरदस्ती बराबरी का बोझ टांग दें। वो अगर दफ़्तर में काम करना चाहे तो वो भी सही और अगर अपने घर की रसोई चुने तो भी उसे हम रिग्रेसिव न समझें।

उसकी ये बातें सुनकर मैं सोच में पड़ गई कि आख़िर इसमें हर्ज क्या है। बेशक उसके पास चुनने का अधिकार होना चाहिए! लेकिन... जो भी चुनाव वे करेंगी क्या वाक़ई वो उनका स्वतंत्र चुनाव होगा? क्या हम ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि जो भी वह चुने वो उसके सामाजिक अनुकूलन का परिणाम नहीं होगा?

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