सोशल मीडिया नियमन से तय होगी जवाबदेही?

हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने कर्मचारियों के सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल करने के सम्बन्ध में नीति तैयार करने के लिए एक समिति बनाई है। इस पर डीयू में पढ़ा रहे शिक्षकों का कहना है कि यह उन पर ऑनलाइन निगरानी रखने की रणनीति है। हालाॅंकि वाजिब सवाल यह होना चाहिए कि आख़िर ये नीतियाॅं लागू करने की ज़रूरत क्या है जब पहले ही एक व्यक्ति के रूप में उन पर वे सभी नीतियाँ लागू होती हैं जो किसी भी सामान्य व्यक्ति पर सोशल मीडिया इस्तेमाल को लेकर होते हैं। तो विभिन्न परतों पर उनके शेयर किए जानकारी को फ़िल्टर करने का क्या औचित्य है?

साथ ही एक शिक्षक को केवल उस संस्थान से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए जहाॅं वे कार्यरत हैं। एक शिक्षक के बतौर वो सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल नहीं करते बल्कि यह उनका व्यक्तिगत सामाजिक मंच है जिसका इस्तेमाल वे जैसे चाहे करने के लिए स्वतंत्र होने चाहिए। एक शिक्षक को हम अब तक भी एक विशिष्ट छवि में गढ़ते आए हैं और हमेशा अपेक्षा रखी है कि वे उसी छवि के अनुरूप कार्य करें। लेकिन यह अबतक होते आने की वजह से सही नहीं हो जाता चूॅंकि वह शिक्षक इस एक छवि को सारी उम्र ढोने के लिए अभिशप्त नहीं होना चाहिए। और जब हम व्यक्ति की स्वच्छंद प्रवृत्ति को स्वतंत्र रूप से ज़ाहिर करने की बात कर रहे हैं तो आज उसका सबसे महत्वपूर्ण टूल है सोशल मीडिया। यों तो सोशल मीडिया सामाजिक मंच है लेकिन उस पर क्या पोस्ट करना है और क्या नहीं, ये बिल्कुल निजी फ़ैसला है। तो ऐसे में आप किसी की निजता के अधिकार का कितना ख्याल रख पाएँगे? और यहीं फ़िर आता है अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का भी प्रश्न!

क्या शिक्षक अपनी बात रखने के लिए स्वतंत्र नहीं होना चाहिए? वह भी बिना किसी फ़िल्टरेशन के। क्योंकि इन्हीं स्वतंत्र विचारों से ही विचारों की विविधता सुनिश्चित की जा सकती है। यही विचारों की विविधता शिक्षण संस्थानों की विशिष्टता है जिसे बचाए रखना बेहद ज़रूरी है। विचारों की विविधता आलोचना की परम्परा को सुदृढ़ करने का ज़रिया है जिसे सहेजकर रखना शिक्षण संस्थानों की प्राथमिकता होनी चाहिए। आलोचना संस्थानों की भी हो सकती है, लेकिन किसी भी संस्थान को अपनी आलोचना का भय इस कदर परेशान न करे कि वे इस तरह की नीतियाॅं बनाने को आतुर हो जाएँ। साथ ही आलोचक भी ज़िम्मेदारी से केवल सुधार की दृष्टि से आलोचना करें न कि कमियाॅं उजागर करने की दृष्टि से। लेकिन सोशल मीडिया मंचों के नियमन की ज़िम्मेदारी क्या डीयू प्रशासन के हाथों सौंपा जाना चाहिए? चूॅंकि बहुत से शिक्षक यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल पढ़ाने या अपनी रुचि अनुसार कंटेंट बनाने के लिए करते हैं जो कि कॉलेज के बाहर उनकी निजी ज़िन्दगी का हिस्सा है। जिस पर किसी प्रकार का नियमन नहीं होना चाहिए। डीयू परिसर के भीतर भी यह शैक्षणिक स्वतंत्रता पर एक सम्भावित प्रतिबन्ध है।

अन्त में देखना यह होगा कि दिल्ली विश्विद्यालय के लिए संस्थागत दिशानिर्देशों और शैक्षणिक स्वतंत्रता के बीच यह नाज़ुक सन्तुलन बना पाना कितना सम्भव हो पाएगा।

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ख़लाओं में ज़िन्दगी