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प्लास्टिक बैन के बावजूद दिल्ली में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रही प्लास्टिक

  • 5 Jun, 2024

17 साल से दिल्ली के कालकाजी में रह रहे 36 वर्षीय कल्पेश हर रोज़ सुबह उठकर सैर के लिए निकलते हैं। सैर से लौटते हुए वो रास्ते में रेड़ी से डाब (नारियल पानी) लेने के लिए रुकते हैं। जब रेड़ी वाले भईया उन्हें नारियल पॉलीथीन में देते हैं तो कल्पेश याद से प्लास्टिक स्ट्रॉ लेना नहीं भूलते। घर लौटते कल्पेश पास वाली दुकान से दूध और चीनी पॉलीथिन में लेते आते हैं। घर आकर वे ऑफ़िस के लिए तैयार होने में लग जाते हैं। ऑफ़िस के लिए डब्बा वो पॉलीथिन में पैक करते हैं ताकि सब्ज़ी से तेल निकलकर बैग में न फैल जाए। शाम को घर लौटते वक्त कल्पेश कुछ हरी सब्ज़ियां और साथ ही बच्चों के लिए उनकी पसंदीदा चीज़ें पैक कराते हैं, वह भी पॉलीथिन में जिसके एक इस्तेमाल के बाद वे इसे कूड़े में फेंक देंगे।

ठीक ऐसे ही प्लास्टिक (एसयूपी) दिल्ली वासियों के रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ऐसे घुला-मिला है कि एहसास ही नहीं होता ये प्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण और परोक्ष रूप से हमारे लिए कितना हानिकारक है।


सत्तर के दशक में जो पॉलीथिन बैग एक नई और वरदान जैसी चीज़ थी, वो अब दुनिया के हर कोने में मिल जाती है। जिस तेज़ी से इसका उत्पादन हुआ (और आज भी हो रहा है) उसका परिणाम ये हुआ कि आज ये प्लास्टिक समुद्र तल की गहराई से लेकर माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई तक पर मौजूद है। और इसकी यही सर्वव्याप्ति पर्यावरण के लिए संकट बनी हुई है जो परोक्ष रूप से मानवीय जीवन के लिए भी खतरा है।


पर सवाल यह है कि पॉलीथिन (सिंगल यूज़ प्लास्टिक) पर प्रतिबंध लगाने के बाद भी ये भारत, विशेष रूप से राजधानी दिल्ली में इतने धड़ल्ले से कैसे इस्तेमाल हो रहा है? हाँ, बिल्कुल! ये हानिकारक प्लास्टिक बैग होने के बावजूद बाज़ार में बिक रहा है। और हर दिशा से हमारे घर तक पहुंच रहा है, चाहे वह किराने की दुकान हो, फल-सब्ज़ी, कपड़ों की दुकान या फ़ास्ट-फ़ूड के स्टॉल से हो। ये मूल रूप से एकल उपयोग प्लास्टिक (एसयूपी) हैं जिसे अमूमन एक ही बार उपयोग में लाया जाता है जिसके बाद वो कचरे में फेंक दिया जाता है।

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    26 वर्षीय पूनम (बदला हुआ नाम) दिल्ली विश्विद्यालय से पीएचडी की पढ़ाई कर रही हैं। उनसे दिल्ली के सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति के बारे में पूछने पर पूनम हमें अपने सेकेंडरी स्कूल के दिनों में ले जाती हैं जब वे अपनी मां के साथ  बाज़ार जाया करती थीं। “बाज़ार के लिए निकलने से पहले की तैयारीयों में जितना ज़रूरी याद से पर्स रखना होता था, उतना ही ज़रूरी याद से घर से पेशाब करके निकलना होता था। क्योंकि अक्सर बाज़ार में या कहीं भी पब्लिक प्लेसेस में लेडीज़ टॉयलेट्स की सुविधा नहीं होती थी। कहीं रास्ते में तो भूल ही जाओ कि आपको टॉयलेट मिलेगा। कम-से-कम आज ये स्थिति कुछ बेहतर हुई है। लेकिन अब भी बहुत सुधार की ज़रूरत है।”.

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    On the occasion of the birth anniversary of the Nobel Prize Winner RABINDRANATH TAGORE, sharing one of my favourite excerpts from the book TAGORE A Life by Krishna Kriplani:

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    हाल में दिल्ली विश्वविद्यालय ने अपने कर्मचारियों के सोशल मीडिया मंचों का इस्तेमाल करने के सम्बन्ध में नीति तैयार करने के लिए एक समिति बनाई है। इस पर डीयू में पढ़ा रहे शिक्षकों का कहना है कि यह उन पर ऑनलाइन निगरानी रखने की रणनीति है। हालाॅंकि वाजिब सवाल यह होना चाहिए कि आख़िर ये नीतियाॅं लागू करने की ज़रूरत क्या है जब पहले ही एक व्यक्ति के रूप में उन पर वे सभी नीतियाँ लागू होती हैं जो किसी भी सामान्य व्यक्ति पर सोशल मीडिया इस्तेमाल को लेकर होते हैं। तो विभिन्न परतों पर उनके शेयर किए जानकारी को फ़िल्टर करने का क्या औचित्य है?

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