बिहार के वैशाली जिले के एक छोटे से गांव में मातो देवी और उनका परिवार रहता है। चुनावी साल है और घरों में बहस छिड़ी है कि कौन अच्छा काम करेगा, हम किसे वोट करें? सब ने अपना-अपना कैंडिडेट (उम्मीदवार) चुन लिया। पर ये क्या! सबने तो एक ही चुन लिया। सबने कहा हम तो इसे ही वोट देंगे। अरे नहीं! मातो देवी ने अपना पसंदीदा उम्मीदवार घोषित किया और बोली कि मैं तो इसे ही वोट दूंगी। एकाध ने इरादा बदलने की कोशिश की। पर वो नहीं पलटी बल्कि बोली- “जिसको सोचा है उसी को अपना वोट दूंगी, मेरे लिए उसी ने काम किया है।”
देश दुनिया से लेकर घर में होने वाली राजनीति जिसमें अक्सर महिलाओं का ‘से’ नहीं होता। पर इस मामले में मातो देवी समझदार हैं और चुनाव के लिए स्वतंत्र भी, लेकिन क्या भारत की आधी आबादी की ये असल तस्वीर है? नहीं! 27 वर्षीय रूपल (बदला हुआ नाम) दिल्ली विश्वविद्यालय से परास्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। वे अपना वोटर आईडी कार्ड नहीं बनवाना चाहती हैं क्योंकि वो कभी वोट डालने नहीं जाने वाली हैं। पूछने पर हमें केवल इतना बताया कि “आज तक न मेरी मम्मी वोट डालने गई हैं और न मैं जा पाऊंगी तो आईडी बनाकर क्या करना। हमेशा पापा ने ही वोट डाला है। आगे देखेंगे।”
भारत आज़ादी से लेकर अब तक एक लम्बी यात्रा तय कर चुका है, जिसमें हमारे पास महिला नेतृत्वकर्ता रही हैं, महिला मुख्यमंत्री रही हैं और एक महिला प्रधानमंत्री भी। लेकिन फिर भी राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की स्थिति बहुत बुरी है। ज़मीनी स्तर पर स्थानीय निकायों में तो महिलाओं का ही प्रभुत्व है। लेकिन फिर टॉप लीडरशिप का क्या?
1960 के दशक में, भारत के पास एक महिला मुख्यमंत्री थीं- सुचेता कृपलानी जिन्होंने उत्तर प्रदेश राज्य का शासन सम्भाला। लेकिन आज जब हम 2024 में हैं तो आज 7 दशक बाद भी हमारे पास केवल एक ही महिला मुख्यमंत्री है- ममता बनर्जी। 28 राज्य और 8 केन्द्र शासित प्रदेश, फिर भी शीर्ष पद पर केवल एक महिला मुख्यमंत्री। आख़िर ऐसा क्यों?
संसद का ही उदाहरण ले लीजिए। वर्तमान में संसद के निचले सदन लोकसभा में कुल 542 सदस्य हैं जिनमें से केवल 78 महिला सदस्य हैं। जोकि 15% से भी कम है। राज्यसभा में यही लगभग 14% है। प्रतिनिधित्व तो कम है ही लेकिन ये वैश्विक औसत से भी कहीं ज़्यादा कम है।
2022 में विश्व के राष्ट्रीय संसदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 26.2% था। इस मामले में भारत बहुत पीछे है और राज्यों का भी यही हाल है। 17 ऐसे विधानसभा हैं जहां महिलाओं की संख्या 10% से भी कम है।
एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार- लेजिस्लेटर्स के रूप में महिलाएं अधिकतर स्तर पर बेहतर प्रदर्शन करती हैं; वे आर्थिक दृष्टि से बेहतर हैं, वे तुलनात्मक रूप से कम भ्रष्टाचारी हैं, वे राजनीतिक अवसरवाद का इतना फ़ायदा नहीं उठातीं हैं। और वे साबित कर रही हैं कि वे बेहतर नेतृत्वकर्ता हैं। लेकिन फिर भी समाज और उसमें व्याप्त असमानता, उन्हें हर बार पीछे खींचती है। यहां कुछ महिलाएं कार्यालय संभालती हैं, कुछ ही चुनाव जीतती हैं, लेकिन उनमें से मुट्ठी भर ही शीर्ष मुकाम पातीं हैं।
जैसा कि पहले बताया, भारत के पास 1964 में एक महिला मुख्यमंत्री थीं और आज 2024 में भी केवल एक ही मुख्यमंत्री हैं। आरक्षण ने स्थानीय स्तर पर महिलाओं की मदद की है लेकिन क्या ये बदलाव हम संसद तक ला सकते हैं? क्योंकि जहां रूपल और उनकी माता जैसी महिलाएं जो अपने राजनीतिक अधिकारों को लेकर जागरूक नहीं हैं तो वहां केवल आरक्षण से क्या बदलाव आ सकेगा? या इसके साथ ही सबको मातो देवी जैसा जागरूक और राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा कर सकने लायक बनाना चाहिए।
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