हर घर का बस इतना ही किस्सा; “सब मिलकर करेंगे तभी तो होगा!”

हम अक्सर कुछ बुनियादी सवालों पर ‘कलेक्टिव’(सामूहिक) का टैग लगाकर उसे नज़रअन्दाज़ कर दूसरे-तीसरे पर टालते जाते हैं। लेकिन अक्सर ये भूल जाते हैं कि वो कलेक्टिव दरअसल सभी व्यक्तिगत से मिलकर ही बनता है और ऐसे में जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी है वो है ‘व्यक्तिगत’!

ऐसे में अगर समाज या समाज की छोटी इकाई घर का हर व्यक्ति अपना व्यक्तिगत योगदान देता रहे तभी सामूहिक भागीदारी सुनिश्चित की जा सकती है। और यहीं अगर सब एक दूसरे को टरकाएंगे या सोचेंगे सबसे मिलकर ही हो पाएगा, ऐसे में बता दूॅं कि सभी के व्यक्तिगत सहयोग से ही यह सम्भव हो पाएगा! इसका अन्य कोई विकल्प नहीं है।

चलिए एक छोटा किस्सा सुनाती हूॅं, जिससे ये बात आसानी से समझा सकूॅं।

ये एक मोहल्ले की कहानी है! जिसकी तंग गलियों के बीचो-बीच स्थित है एक ख़ूबसूरत ऐतिहासिक इमारत। वहाॅं आसपास रहने वालों ने उस इमारत की सीमा का अतिक्रमण तो किया ही, साथ ही अपना कचरा भी उसके आसपास फैलाया, तो उनके बच्चों ने उसे अपना प्लेग्राउण्ड बनाया। और ऐसे ही उस मोहल्ले के सामूहिक सहयोग से आज वो इमारत धीरे-धीरे अपनी गुमशुदगी में खो रहा है। आज उसे देखने पर्यटक नहीं आते, उसकी इस दशा ने उसकी ऐतिहासिकता पर भी प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है।

आज उसकी ऐसी दशा इसलिए क्योंकि सबने सोचा ये हमारी ज़िम्मेदारी नहीं। किन्तु सोचिए अगर उनमें कुछ लोग ठीक इसके उलट सोचते तो इस क़िस्से का अन्त कैसा होता?

उस इमारत के प्रति पुरातत्व विभाग ने अपनी ज़िम्मेदारी निभाई हो या नहीं, लेकिन उसे सहेजकर तो वहाॅं रहने वाले आम लोग ही रख सकते थे वह भी सामूहिक सहभागिता सुनिश्चित करके।

इस कहानी में यहाॅं विषय वह इमारत है, अब आप इस विषय को बदलिए, मेरा दावा है विषय तो बदलेगा पर हालात नहीं बदलेंगे।

अन्त में, निष्कर्ष यह है कि यदि किसी समाज को बेहतरी की ओर बढ़ना है तो ऐसे में ‘व्यक्तिगत सहयोग’ को दुरुस्त किए बिना सामूहिक योगदान की कल्पना नहीं कर सकते। ऐसे में अकेला, आम व्यक्ति सबसे महत्त्वपूर्ण हो जाता है जो अपने स्तर पर सम्भावित हर प्रयास करे समाज को सही दिशा में बढ़ाने के लिए।

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ख़लाओं में ज़िन्दगी