26 वर्षीय पूनम (बदला हुआ नाम) दिल्ली विश्विद्यालय से पीएचडी की पढ़ाई कर रही हैं। उनसे दिल्ली के सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति के बारे में पूछने पर पूनम हमें अपने सेकेंडरी स्कूल के दिनों में ले जाती हैं जब वे अपनी मां के साथ बाज़ार जाया करती थीं। “बाज़ार के लिए निकलने से पहले की तैयारीयों में जितना ज़रूरी याद से पर्स रखना होता था, उतना ही ज़रूरी याद से घर से पेशाब करके निकलना होता था। क्योंकि अक्सर बाज़ार में या कहीं भी पब्लिक प्लेसेस में लेडीज़ टॉयलेट्स की सुविधा नहीं होती थी। कहीं रास्ते में तो भूल ही जाओ कि आपको टॉयलेट मिलेगा। कम-से-कम आज ये स्थिति कुछ बेहतर हुई है। लेकिन अब भी बहुत सुधार की ज़रूरत है।”
उनकी साथ श्वेता (बदला हुआ नाम) बताती हैं कि “ये तो आज हम पब्लिक टॉयलेट के बात कर रहे हैं। अगर मैं इतना पीछे जाऊं तो मुझे अच्छे से याद है, हमारे पास स्कूल में ही टॉयलेट्स नहीं थे। उतने बड़े स्कूल में क़रीब लाख बच्चों के लिए सिर्फ़ एक ही टॉयलेट था जो कि इतना गन्दा था कि मैं उसमें कभी नहीं जा पाती। हमेशा स्कूल की छुट्टी होने का इंतज़ार करती थी और घर कर आकर ही टॉयलेट इस्तेमाल करती थी। अगर इस हिसाब से देखें तो बेशक हालत सुधरे हैं।”
राजधानी दिल्ली घूमने का ख़्वाब हर कोई देखता है। न सिर्फ़ पर्यटन की दृष्टि से बल्कि इसलिए भी कि दिल्ली भारत की राजधानी होने के नाते सभी सुविधाओं से लैस है। लेकिन फिर भी जब मूलभूत सुविधाओं जैसे- पानी आदि की बात आती है, तब यही दिल्ली की मूलभूत समस्याओं में बदल जाती है। उन्हीं में से एक है सार्वजनिक शौचालयों की समस्या।
‘ऐक्शन एड’ की ‘पब्लिक टॉयलेट्स इन दिल्ली- अ स्टेटस सर्वे’ रिपोर्ट में उन्होंने दिल्ली के 229 शौचालयों (एसडीएमसी- 66, एनडीएमसी- 77, ईडीएमसी- 60, न्यू डेल्ही एमसी- 24 और सुलभ शौचालय- 2) का सर्वे किया तो पाया कि 72% शौचालय ऐसे थे जिनके लिए साइनबोर्ड्स ही नहीं थे। 35% शौचालयों में महिलाओं के लिए अलग से व्यवस्था नहीं थी। 76% शौचालय डिसएबल्ड फ्रेंडली नहीं थे। शौचालयों की साफ़–सफ़ाई एक आम लेकिन गम्भीर समस्या थी, जिसमें 71% से अधिक शौचालय नियमित तौर पर साफ़ नहीं होते थे। इसके अलावा कई आम ज़रूरत की चीज़ें जैसे हैंडवॉश, सोप, वर्किंग फ्लश, और पानी की समस्या भी 50–60% से ज़्यादा रही।
2016 तक महिलाएं जो शौचालय इस्तेमाल कर रही थीं उनमें 30% से भी ज़्यादा में दरवाज़े नहीं थे। और 45% शौचालयों में दरवाज़ें तो थे लेकिन बन्द करने के लिए चिटकनी टूटे हुए थे या थे ही नहीं। 55% ऐसे थे जिनमें लाइट नहीं था और 46% जिनमें गार्ड नहीं थे देखरेख के लिए।
यह दिसम्बर 2016 में किया गया सर्वे रिपोर्ट है। यानी कि ‘स्वच्छ भारत मिशन’ लॉन्च के दो साल बाद के हालात ये हैं। तो इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इससे पहले दिल्ली में शौचालयों की क्या स्थिति रही होगी। सिर्फ़ अंदाज़ा इसलिए क्योंकि हमें इससे पहले दिल्ली में कितने शौचालय थे इसकी पुख़्ता जानकारी हासिल नहीं कर पाए हैं। हालांकि 2019 तक एमसीडी द्वारा दिल्ली में बनाए गए सार्वजनिक शौचालयों की संख्या 2,985 है। (प्रजा फाउंडेशन की जुलाई 2020 की स्टेटस ऑफ़ सिविक इश्यूज़ इन दिल्ली की रिपोर्ट के अनुसार।)
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